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में पंछी सोने के पिंझरे का       में पंछी सोने के पिंझरे का       में पंछी सोने के पिंझरे का       में पंछी सोने के पिंझरे का       में पंछी सोने के पिंझरे का       में पंछी सोने के पिंझरे का       में पंछी सोने के पिंझरे का       में पंछी सोने के पिंझरे का       में पंछी सोने के पिंझरे का       में पंछी सोने के पिंझरे का      

में पंछी सोने के पिंझरे का, यह उपमा लिए फिरता हूं...
उड़ना तोह चाहता हूं, मगर पिंझरे से टकराकर फिर घिरता हूं।

मेरी उड़ाने, मेरी आंखों को कोसती है कि घर का भेदी है तू...
पिंझरा सोने का ही क्यू ना हो, मगर असल में कैदी है तू।

कोई पूछे तो उससे कह देना कि इस सोने के पिंजरे की कीमत मेरी उड़ान थी...
ये मेरा घर नहीं, मेरा घर यहां से दूर है, जिसमें मेरी जान थी।

काश कोई आए और खोल दे ये पिंजरे का ताला...
पिंजरा सोने का देख शक ना करना, नहीं हूं में इतना किस्मत वाला।

सोने का पिंझरा देख मुझे नसीबदार ना समझना...
में तोह बेजुबान हूं, मुझे खुद की तरह मोन ना समझना।

थक गया हूं में, अब हौसलों में उड़ान नहीं है...
उड़ना तोह चाहता हूं मगर पंखों में अब वो जान नहीं है।

- भव्य कुमार जैन